पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१६१

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अहौ कवि बद्रीनरायन जू वह मूढ़ता मूढ़ मनै मन आन।
अनूपम रूप मनोहर को तुअ जौन कहूँ करतो अभिमान॥

२०

चढ़ी भौंह कमान समान लसै उभय लोचन वान करालन सों।
वर बज्र पयोधर पीन सुत्यो बरुनी के बुझे विष भालन सों॥
लहिये कवि बद्रीनरायन जू क्यों सुधा मधुराधर लालन सों।
बचि जाय सकै कहो कैसे कोऊ ये दई अलकावलि ब्यालन सों॥

२१

या मन मोहनी सोहनी सूरत सारद चन्द अमन्द निकाइयै।
चित्त चकोर न मानत नेक उभार उरोज सरोज सुभाइयै॥
क्योंकर बद्रीनरायन जू इन नैन मलिन्दन मत्त मनाइयै।
मूरत मैन मई लखि कै मन कौन उपायन हाय बचाइयै॥

२२

आनन इन्दु अमन्द चुराय चकोर चितै ललचावन वालो।
या चिबुकस्थल चारु गुलाब मलिन्दन लोचन सोचन सालो॥
प्यारे पिया कवि बद्रीनरायन जू की विनै नहि नेक सँभालो।
रूप अनूपम देहु दिखाय दया करि हाय न घूघट घालो॥

२३

मन मानिक लेइबे में तो प्रवीन के दीन दया दरसातै नहीं।
अनरीत ही श्री कवि बद्रीनरायन प्रीत के रीत की बातें नहीं॥
कपटीन सो प्रेम किये में अहो हमें ओछो सनेह। सोहात नहीं।
दिल देय तो देखत ही पै कोऊ दिलदार तो हाय देखात नहीं॥

२४

फूले गुलाब, खिले कचनार अनार बहार बिहार भरी सी।
सोय रही तहँ बद्रीनरायन दीपति दामिन लौ निरखी सी॥
देखत ही सपने में अचानकु बालम सों बहियाँ पकरी सी।
सेज परी पतरीसी परी उछरी चट चौक चली सकरी सी॥