पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१६०

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१४

चितै दृग मीन मलीन कियो मद हीन भये गज चाल मराल।
दबी दुत दन्तन दामिन ठोढी लखे पियरे भये डाल रसाल॥
भुजा छबि बद्रीनरायन जू दियो बास उदास कै ताल मृणाल।
लगाय मसी मुख डोलत मन्द सो चन्द विलोकत भाल विशाल॥

१५

उमङ्ग सो संग अलीन कढ़ी तज गंग तरंगन बाल।
लसैं जलभीज दुकूल अनंग से अंगन की छवि छाप कमाल॥
पयोधर पीन पै ये कवि बद्रीनरायन जू लटकै लटजाल।
लखो लहि पूरन प्रेम महेसहि चूमि रहे जनु व्याल विशाल॥

१६

रही कर मान मयंकमुखी मनभावन देखत ही एक बार।
चितौन लगी कल अंचल अम्बर ओर उरोज उतंग उभार॥
लखो कवि बद्रीनरायन भौंह कमान पै नैनन बान संवार।
अहो अलकावलि ओट दुरो अरि मारहि मारत मानहुं मार॥

१७

प्रभात जम्हात उठी अगराय उठाय दोऊ कर पुंज उदोत।
मिली जुग पंजन की अंगुली नख भूषन की उमगी जगि जोत॥
लसैं उभरे कुच बद्रीनारायण जू चहुंधा भुज की छबि पोत।
लखौ जनु दामिनि मंडल द्वै ससि घेरत कैसी सुसोभित होत॥

१८

मयंक ससंक न राहु विलोकतहूं अलकावलि को कल दाम।
न नेक त्रसैं पिक पातकी नैन बान कमानहिं भौंह न राम॥
कहौ यह कारन कौन कहै कवि बद्रीनरायन जू मतिधाम।
बसै कुच शंभु सदा तन माहि तऊनित हाय सतावत काम॥

१९

न होतो अनंग अनंग हुतासन कोपहुं में दहतौ न महान।
कोऊ कहतो यहिको नहिं मार न मारतो साँचह शंभू सजान॥