पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
-१४१-

विद्या अति विमल सुमति हू भली है गुन-
वंतन में रहे सदा वासी हैं सहर के।
बद्रीनाथ गाय कहि जाय तकदीर की न,
चाहै तवदीर करो लाखन ठहर के॥
होय नहि अर्थ व्यर्थ इष्ट मित्र दास सुत,
साँझ हूं सकारे लेत प्रान लर लरके।
कह्यो नहि जाय दुख सह्यो नहि जाय
हाय बिना रोजगारी-रोज गारी देत घर के॥