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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१६९

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बद्रीनाथ घन घमकीली धुन सुनि सुनि,
बिन पिया प्रविशत प्रान बीच त्रास है।
धुन धुरवान की करे जे बीच सालै आली,
अब वनमाली के न आवन की आस है॥


निस द्योस खड़ो रह्यो द्वार मेरे, नहिं जायौं कहा यह रीत गही है।
हरकी किती मान्योन नेकतऊ, किहिकारन यह वदनामी सही॥
कहि है कहा बद्री नारायन जू, टुक सोचिये चारो हमारो नहीं।
व अहीर को गारी दई जो भटू, सोतो जत के माफिक बात कही॥


भांदव की सुदी चौथ है आज, सबै उर संक कलंक समाइये।
नैन छपाकर आप सों जात, सवै सो कहो हम कैसे छुपाइये॥
वाके ललाट लौं लेखि तुम्हें पुनि, देखि यहै घन प्रेम मनाइये।
वाही-मयंक मुखी सोमयंक, कृपा करि मोहि कलंक लगाइये॥


जान नहि देत गैल रोकि रोकि आली आज,
नन्द को किशोर करै अजब ठिठोली री,
बाजत चहुंधा झांझ डफ औ मृदंग धुनि,
तमे मिली गावै सवै सखा हम जोड़ि री॥
बद्रीनाथ उड़त अबीर आज वृजमहि,
मार्यो पिचकारी जासो भीजगई चोली री।
कहा कहूं आली वनमाली की कुचाली देखौ,
चूमिमुँह मोसो कहै आज होरी होरी री॥

१०


पहिले निज नैन लगा लगी कौकै, लगे अव-रोवन मौ कहि के।
करै चाव चवारी यों अव ताते तज्यो वृज की दुख यौ सहि कै॥
नहि है बस बद्रीनरायन जू, रहिये अब मौनहिं को गहि के।
अनरीत करी वा विसासी ने जौ,तुम रीत करौ क्षमा की गहिकै॥