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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१७४

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कलिकाल तर्पण

ब्रह्मादिक सब सुर मति धाम। आये भारत में केहि काम॥
गवनहुँ निज गृह लेहु प्रणाम। सन्तोषहि से तृप्यन्ताम॥
विधि केहि विधि औ कौन विधान। रच्यो रुचिर यह हिन्दुस्तान॥
दियौ आरजन बल बुधि ग्यान। विद्या सुमति सकल गुन खान॥
सुखी सराहे सुभट सयान। जब वे जाहिर रहे जहान॥
धन विद्या लहि सहित सुजान। तबै रह्यो उनके हिय ग्यान॥
तब करि सादर तुमहिं प्रणाम। विविध रीति अरचत मति धाम॥
ध्यान यज्ञ तरपण अभिराम। करत रोज उठि तृप्यन्ताम॥
अब तुम और लियो मन ठान। विरच्यो विविध विरुद्ध विधान॥
हरयो राज बल विद्या ज्ञान। कियो भलें भारत अपमान॥
मारि काटि कीने वीरान। दीन हीन अब हिन्दुस्तान॥
पास रह्यो नहि एक छदाम। बिना द्रव्य नहिं सरकत काम॥
दुखी यहां के नर औ बाम। देयँ कहां तुमको आराम॥
अब अतृप्त आपै सब जाम। करै तृप्त किमि तुमहि अवाम॥
तुम जस कियो भयो सो काम। होहु दशा लखि तृप्यन्ताम॥
विष्णु सुने हम कथा पुरान। सब तुमरो गावत गुन गान॥
लगी द्रौपदी की पति जान। टेर्यो है वह विकल महान॥
तब तुम चीर बढ़ायो आन। गज की लगी जान जब जान॥
दौरि ग्राह को मारयो प्रान। प्रहलादहु के हित सुखदान॥
खम्भ फारि प्रगट्यो भगवान। मारयो हिरनकशिप बलवान॥
राम कृष्ण द्वै कोपि महान। हत्यो निशाचर चोखे बान॥
प्रलय पयोनिधि में तुन आन। मीन शरीरहि धारि महान॥
रक्षा वेद कियो भगवान। सुनियत ऐसे लाख बयान॥