पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१८५

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१५५ लाल तूल की कञ्चुकी, कैसी शोभा देत । माजि स्वच्छ चमकाय कर, परि का मन हरि लेत। झनकारत पेरी चली, घायल करत दुरेर। करन मोल मिसि हसन लखि, बाढ़त मदन मुरेर । धोबिन विन धोये वसन, ब्याकुल बैठी धाम । रुजगारी नाऊ रहे , सोय बिना कुछ काम ॥ रहे पादरी लोक सब, घाटन बाज सुनाय । भोले भोले हिन्दुअन, सों जनु फाग मचाय ॥ लम्बी चौड़ी वात कहि, रहे सबन वहकाय । उनके पुरखन देवतन, को दै गारी हाय ॥ मुसलमान गन देखि यह, पूजनीय त्योहार । सिच्छा साहजहान की, गुनि जनु लगी कटार ॥ देखो तो निज पितर हित, हिन्दू साजे साज । करत विविधि खैरात क्या भक्ति भरे से आज ।। भारतवासी साचहूँ, तजि जग के ब्योहार ॥ वाह लगत कैसे भले, धरे धरम आचार ॥ श्राद्ध करत तरपन कोउ, विप्रन रहे जिमाय ।। कोउ पग धोवत देत कोउ, पान द्रव्य सिर नाय । तिनकी भामिन आज क्या, सजे अपूरब साज। स्वच्छ भये गृह शुचि सुमन, धरे पितर गन काज । निज कर कल अलकावली, लिये देत जल बाल । छुटन कालिमा हेतु जनु, धोवत पंकज ब्याल । अपनी निरछल भक्ति अरु, सहित अटल विश्वास । अवसि दियो करि तृप्त यह, सहज सुभावन सास ।। अञ्जन रञ्जन बिन नयन, नील कञ्ज सम स्याम । बिना राग बीरीन के, मधुरे अधर ललाम ।। स्वच्छ सेत सारी सहित, साचहुँ रही सुहाय। मुख मयङ्क मनु झलमल, गङ्गतरङ्गन जाय ॥