पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१८६

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- भक्ति भरी इत उत रही, करि प्रबन्ध जेवनार । मानहुँ मूरति कुल वधू, रचि पठई करतार ॥ घर घर याही विधि भयो, हिन्दुन के सब साज ।। पितर भक्ति इनकी मनहुँ, जगत लजावत आज ॥ कोलाहल बाढ़यों महा, स्वर्गहु मै अब जाय । अरजी पितरन की परी, धरमराज ढिग आय ।। द्वै हप्ता हित कै गई, जब रुखसत मंजूर । स्वर्ग नर्क मै यह खबर, भई खूब मशहूर । हिन्दुन के पुरखा चले, मृत्यु लोक हरखाय ॥ और जाति लखि विकल है, परी मरी खिसिआय ॥ आये जो ये पितर गन, भरत खण्ड के बीच ॥ देखि यहाँ की दुख दशा, सकुचि किये सिर नीच ॥ कोऊ तो सोचन लगे, करि मन महा मलीन । ठण्डी साँस भरन लगे, कोउ होय अति दीन ॥ कोऊ के दृग सों चली बहि आसुन की धार । कोऊ कहत कराहि के, कियो कहा करतार ॥ नहि अब भारत वह रहयो, नहिं यामैं वह तत्व । हाय विधाता ने हरयो, कैसो याको सत्व । नहिं वह काशी रह गई, हती हेम मय जौन । नहिं चौरासी कोस की, रही अयोध्या तौन ॥ राजधानि जो जगत की, रही कभौ सुख साज । सो बिगहा दस बीस में, सिकड़ी सी जनु आज ॥ इहई सूरज बंस के, दानी । वीर विशाल । रहे राज राजेस वे, चक्रवति भूपाल ॥ प्रबल प्रतापी निज अरिन, हेत काल विकराल । किये दिग्विजय जे सहित जगत प्रजा प्रतिपाल । जे सुरनायक की किये, बार अनेक सहाय । दया धर्म अरु सत्यता, शुद्ध पथिक पथ न्याय ॥