पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१९३

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चलहु चलहु भागहु तुरत, नहि यां ठहरन जोग। भयो प्रबल भारत अटल, अब कलजुग को भोग। देहिं कहा निज वंश कों, हाय और हम शाप । जस कछुये करिहैं अवसि, फलहु भोगिहैं आप॥ देत बनै न कुचाल लखि, इनको कुछ आसीस। देय सुमति इनको कोऊ, बिधि जगदीश्वर ईश। विद्या बुधि बल राज सुख, लहि फर होहिं सुजान। सांचहुँ ए वैसे यथा, कह्यो कोउ विद्वान ॥ नहिं विद्या नहिं बाहु बल, नहिं खरचन को दाम। दीन हीन हिन्दून की, तू पति राखै राम॥ प