पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१९२

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१६२ सीखे इक निन्दा करन, सब की आठो जाम। जगत पनाला को बनो, देत जासु मुख काम। अपनी टुच्ची बुद्धि सों, जगत तुच्छ जिन कीन। अपने दुष्ट प्रलाप सों, कहे सबहि मति हीन ।। केवल कहिबे को बने, दम्भ धारमिक नीच। करनी कछु नहिं देत जग, सच्छा को इस्पीच॥ कितने पापी खल बने, फिरै ब्रह्म खुद आप। कोऊ अब चाहत बने, स्वयम् ब्रह्म को बाप ॥ तन कहँ आतम ज्ञान क्यों, होय करहु अनुमान। ए पूरे पशु यदपि नहिं, सहित पूँछ अरु कान॥ ए ईश्वर के कोप के, अनल जलत दिन रैन। निज प्रभु सों बै बिमुख ए, पावै नेक न चैन ।। तासों हम सब अब चलो, चलें यहां सों भाग। लागी भारत भूमि मैं, प्रवल विपति की आग॥ जो हम लोगन के घरन, वेद ध्वनि नित होत। यज्ञ धूम सोद्विज सदन, प्रगटित चिन्ह उदोत ॥ चूना कलई तहँ भई, छेड़ें कसबी तान। तबलन की घुटकन सुनत, जात दियो नहिं कान ।। दुन्दुभि शंख धुकार जहँ, होत सोम रस पान। सोडावाटर बटल की, का कहि फोरत कान।। मद्यपान सो मूर्छित, चुकत सबै सिंगार। हा या भारत की करी दसा कवन करतार ।। जहँ हम संध्या श्राद्ध अरु, तरपन पूजन कीन। तहां रोज कुकरम करत, ये पशु पाप प्रवीन ॥ चलहु करैय्या कोउ नहीं, इत हमार सत्कार। नहिं इनको अवकाश रत, रहत अधम व्यापार ।। फिर इन नीचन नास्तिकन पाप परायण हाथ । लेय कौन जल पिन्ड को, मारै असि निज माथ ॥