पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१९८

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- १६८ - अमल एकता औषधी को जो पोषक नित्त। बैर तिमिर को नाश ही जासु प्रकाश निमित्त ॥७॥ राज अनीति सरूपतन ताप मिटावन हेत। छुद्र तरैयन हाकिमन की दबाय दुति देत॥८॥ योग्य परम प्रिय पुत्र भारत माता को जौन। रहो खरो वाचाल जो सो क्यों साध्यो मौन ॥९॥ जननि भक्ति अरु बन्धु वत्सल जो रह्यो महान। तिन के दुख के कथन मैं रुकी न जासु जबान ॥१०॥ धर्म धुरन्धर धर्मध्वज सत्य धर्म को नेम। भक्त शिरोमणि दृढ़ महा जाको अविचल प्रेम ॥११॥ महाबीर बर वैष्णव रहस कथा जो जान। युगल उपासक राधिका माधव को उर ध्यान ॥१२॥ युगल प्रेम जाके रह्यो रोम रोम में पूरि। दृग आगे जाके नचत सदा सेई सुख मूरि॥१३॥ बल्लभ कुल के शिष्य गन मैं शोभा को हेत। अष्ट छाप को नौ करन कविता भक्ति निकेत॥१४॥ दीनन को जो कल्प तरु रघु बलि करन समान। जाको विदित जहान में बित के बाहर दान॥१५॥ दुखियन के दुख मेटिबे में नित जाको ध्यान। परजन दुख भंजन करन विक्रमसिंह समान ॥१६॥ गुन गाहक गुनि जनन को पण्डित जन को मीत। बन्दी दान सप्रीत ॥१७॥ बारबधू कल कामिनी सरस रसीली बाम। तिन मनमोहन मैं मुरत मनहुँ मनोहर काम ॥१८॥ नायक नव नागर सकल गुन आगर चित चोर। हाय ! हाय !! हरिचन्द सो चलो गयो किहिं ओर ॥१९॥ धर्म अर्थ अरु काम सो सांचहु नाहिं अघाय। त्यागि सबै तै अवसि प्रिय ! लयो मोक्षपद जाय ॥२०॥ चारन याचकन दाता