पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१९९

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अथवा रसिक शिरोमणे ! जानि जवानी अन्त। सरस रसीले रूप को बीतत देखि बसन्त ॥२१॥ मूरति मान सिंगार लौं सब सिंगार को अंग। नायक नवल चले लिये सकल भाव रस रंग ॥२२॥ नवल बनावन हित बनक साँचहु चले पराय। जामैं प्रेमी प्रेम यह नेकहु नहिं मुरझाय ॥२३॥ पै जो यह सिद्धान्त तुव तौ तू भूल्यो मीत। अभै हुतो नायक नवल उपजायक जब प्रीत ॥२४॥ काल कला . पूरन बिना भए हाय हर चन्द। काल राहु ने ग्रस लियो हिन्द चन्द हरिचन्द ॥२५॥ प्रेमिन को जो प्रान धन रसिकन को सिरताज। कविता को तो डूबि गो मानहु आज जहाज ॥२६॥ कविजन को जो मित्रवर विद्वानन को बन्धु । पूरन विद्या को मनहु हाय सुखानो सिन्धु ॥२७॥ हिन्दुन को जो मणि मुकुट अग्रगण्य जन हाय। ताहि आज या हिन्द नै कानै लियो उठाय ॥२८॥ जीवन दाता जो रह्यो हिन्दी लता अधार। तिहि तरु काट्यो हाय हनि काल कराल कुठार ॥२९॥ नित नव ग्रन्थन सुमन के. परकाशक तरु हाय। मध्य समय ऋतु राज के सो कस गयो सुखाय ॥३०॥ नीरस · भाषा पत्र फल भये सबै जनु आज। गयो बाटिका हिन्द नै सोभा को ऋतु राज॥३१॥ राजनीति को मर्मवित् कोविद् परम सुजान। देश हितैषी खगन को जो बिश्राम ठिकान ॥३२॥ उन्नति आशा लता को एकै आह अलम्ब । किय अभाग भारत पवन तोरत तेहि न बिलम्ब ॥३३॥ लेखक तुल्य गनेश के शेष सरिस विद्वान्। भाषा को तो भारती लौं कबिराज महान ॥३४॥