पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२०१

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१७१ दया भवन को साँचहू भयो हाय दर बन्द ! पर उपकार अपार यश लै भाज्यो हरिचन्द ॥४९॥ सत्य सभ्यता की लता आज गई मुरझाय। राजभक्ति को साचहूँ सरवर गयो सुखाय ॥५०॥ साँचहुँ देशहितैषिता को तरुवर गो टूटि । सच सुदेश अभिमान की गई गढ़ी जनु छूटि॥५१॥ ब्रह्मा की कारीगरी को जो रह्यो प्रमान। सोई ताकी चूक दरसावत कियो पयान ॥५२॥ जा मुख चन्द अमन्द दुति करत चन्द दुति मन्द। जो दुचन्द हरि चन्द सो रहो अहो हरिचन्द ॥५३॥ मान छीन करि हिन्द को काशी को करि दीन । काशिराज की सभा को जिन कीनी छबि छीन ॥५४॥ भारतेश्वरी को गयो भक्त प्रजा सिर मौर। भारत माता को भयो भयो शोक इक और ॥५५॥ राज रिपन से रतन को एक जवहिरी हाय। दीन हीन हिन्दून की एकै करन सहाय ॥५६॥ हिन्दी पत्रन के मनो रञ्जकता को हेत। देशबन्धु अलसीन को कारन करन सचेत ॥५७॥ देश उन्नति को खरो दरसायक शुभ पंथ जाके सुगम उपाय मिस लिखे अनेकन ग्रन्थ ॥५८॥ जो जाके उद्योग में यावत् जीवन लीन। युक्ति अनेक निकारि जग सिद्धक परम प्रबीन ॥५९॥ पत्रन के सम्पादकन को जो एक सहाय। सब प्रकार उत्साह दाता तिन के मन भाय ॥६०॥ सभा सरोवर को रहो जो वह कलित मराल । आरज आपति शस्त्र को बनो रहो जो ढाल ॥६१॥ हिन्दी ग्रन्थ नवीन को जो नित बहत प्रबाह । आदि अन्त लौं नद सोई सूखि गयो क्यों आह ॥६२॥