पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२०२

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- १.७२. यंत्रालयन अनेक को जो नित कारन काम। जो मणि दीपक लौं रह यो विमल बनारस धाम ॥६३॥ हिन्दी भाषा गद्य को लेखक शुद्ध सुजान । प्रथम पुरुष साँचो सोई सुन्दर सुकवि महान ॥६४॥ नाटक विद्या को रह्यो जीवन दाता जौन। कविता के सब देश को मनहुँ सरस्वति भौन ॥६५॥ सरस राग के सुरन को जो सांचो उन्मत्त। सब से गीत कलानि को काढ़ि लियो जनु सत्त॥६६।। केलि कला को जो रह्यो पण्डित परम प्रवीन। सरिता रस के बीच को विहरन वारो मीन॥६७॥ जो सिंगार श्रृङ्गार को रहो वीर को वीर। ताके करुणा सिन्धु को मिलत नाहिं अब तीर॥६८॥ जाके कविता ‘चमन के छन्द प्रबन्ध प्रसून । ग्रन्थ विटप जा भार सो दमकावति दुति दून ॥६९।। शब्द सुगन्ध अमल अरथ मय मकरन्द लुभाय । जामै मत्त मलिन्द मन रसिकन को है जाय ॥७०॥ नौरस की नव क्यारियां सजी अनोखी चाल। अलंकार सो अलंकृत रविश विचित्रित जाल ॥७१॥ व्यंगि बावरी में भरो बाचक बारि ललाम। अमल कमल कुल लच्छना निरखत अति सुखधाम ॥७२॥ हाव भाव सञ्चारि जो स्थाई आदिक भेद। बहु भांतिन के मीन जहँ विहरि रहे तजि खेद ॥७३॥ जा तट वासी सुकवि जन सैलानी कल हंस। ओज प्रसाद अरु मधुरता को सोपान प्रसंग ॥७४॥ हिन्दी भाषा की रुचिर भूमी परम सुधार। देश दोष शोधन विषय की घेरी दीवार ॥७५॥ दृश्य श्रव्य के भेद सो द्वै 'फाटक सुख धाम । बरनन नायक · नायिका राह अनूप ललाम ॥७६॥