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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२०३

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माली ताही बाग को सुन्दर सुघर प्रवीन। नाटक विद्या को रहो जो थल रंग नवीन ॥७७॥ पिंजर सुजन समाज को जो शुकवर वाचाल। ताहि झपटि खायो तुरत खल विलाव सम काल ॥७८॥ जो या हिन्द समाज को परम पुष्ट पतवार। हा पश्चिम उत्तर प्रभा कर अथयो इक बार ॥७९॥ हा काशी कुल कामिनी को सोलहु सिंगार। हा आरत भारत प्रजा को तूं एक अधार ॥८०॥ हा हिन्दू धर्मेतरन को तू काल कराल। हा हरि भक्तन मन ‘महा मानस मंजु मराल ॥८१॥ हा गुन' गाहक गुनिन को हा दीनन आधार। हा गोवध के बन्द हित उद्यम करन अपार ॥८२॥ हा श्री माधव राधिका युगल चरन अरबिन्द। सरस भक्ति मकरन्द मन मोह्यो मत्त मलिन्द ॥८३॥ हा हिन्दी प्रिय दूलहिन के सोभादर सन्त । गुनन आगरी . देव नागरी नागरी कन्त॥८४॥ हा मम प्राणोपम सुहृद हा प्यारे हरिचन्द। बिन तेरे या हिन्द की लगत आज दुति मंद॥८५॥ कहाँ भज्यो तू कित गयो भयो कहा यह आज। दियो काहि तू देश हित करन भार को साज॥ ॥८६॥ स्वर्गहु सों यह जन्मभूमि प्रिय तो कहँ मित्र। रही तऊ तजि तू गयो कारन कौन विचित्र ॥८७॥ देशबन्धु गन त्यागि कै चल्यो कितै तू हाय । इनकी कुटिल कुचाल लखि भाज्यो वैगि रिसाय॥८८॥ अथवा भारत भूमि को होनहार अति मन्द। देख चल्यो चुप चाप तू चतुर हाय हरि चन्द ॥८९॥ अथवा जग हित के लह्यौ जो विपाक विपरीत। देन चल्यो विधि सों किधौं तू उलाहनो मीत ॥९०॥