१७५ कवित्त रोवें क्यों न गुनी जाके रहे गुन गाहक ना, पण्डित सुकवि रोय सुख सेज सोवै ना। रोवें क्यों न पत्रन प्रचारक हितैषी देश, सभा को करैया कैसे हिय हरखु खोवैना॥ दीन मीन दान सिन्धु सूखे किन रोवें, रोवै भारत समस्त दूजो सत्य प्रिय जोवैना। मित्र क्यों न रोवै तेरो शत्रु क्यों न होवे तऊ, पूरो पशु होवे ना तो क्या मजाल रोवेना ॥१०४॥ सोरठा श्री हरि चन्द दुचन्द, जाके यश की चन्द्रिका। कियो चन्द दुति मन्द, सो वह हाय कितै गयो॥१०५॥ कवित्त उन निज राज पर काज दान दीन इन, सर्वसहीन ताही हेत चेत कै गयो। उन तन बेंचि हठि राख्यो निज सत्य इन, सत्य सत्य पर काज करि तन दै गयो।। उन एक गुन यश पायो इनके अनेक, गुन गान करि पार कौन जन लै गयो। भारत को साँचो चन्द साँचो हरिचन्दसम, साँचो चन्द सम हरीचन्द सो अथै गयो॥१॥ कवित्त सींचि कवि बचन सुधा के सुधा सों जहान, कवि कुल कैरव विकासमान कै गयो।
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२०५
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