पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२११

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नेह निधि पयान सुकवि सुजान विद्या विविध निधान, कला कोविद महान धीर पूरन परन मै। भरत पुराधिय को बंस अवतंस, गुन गनन प्रसंस वीर अरि ते अरन में। सील सुन्दर सराही सवही ते सोई, छांडि जस जग दुख मानस नरन मैं "नेहनिधि" कृष्ण देव सरन अनन्य भक्त, कृष्णदेव भाज्यो कृष्ण देव के सरना मैं। रूप X x औचकही, तुम नेह निधि, भाजें कितै पराय। करी नाम विपरीत यह, निठुराई तुम हाय ॥ खोय रतन अनमोल इक, भारत भयो मलीन । पश्चिम उत्तर देस सौ, वन्यौ निपट अति दीन । भयो बनारस विनारस, पाप कठिन आघात। तुमहिं देखि हरिचन्द दुख, भूलो जौन जनात॥ उपवन नेह निवास पर, आप अटल पतझार। अरीन जहँ आधीधरी, विरमी जित वहुबार। नित जहँ नवल वसन्त छवि, छाई सों लहरात। नित जहँ रसिक मलिन्द के, मत्त वृन्द मडरात। चित चोरत जहँ खिल सुमन, सुन्दर रूप हमेस । लेखि लजत छवि जसन लहि, कुसुम अराम सुरेस ॥ बरसत निसिबासर जहाँ रह्यो मोद मकरन्द। उड़त निरन्तर जह, रहयो, प्रेम पराग अमन्द ।