पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२२८

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प्रेम पीयूष वर्षा मंगलाचरण लसत सुरंग सारी हिये हीरक हार अमन्द।' जय जय रानी राधिका सह माधव बृजचन्द । नवल भामिनी दामिनी सहित सदा घनस्याम । बरसि प्रेम पानीय हिय हरित करो अभिराम॥ यह पियूष वर्षा सुखद लहि सुभ कृपा तदीय। साँचहु सन्तोष रसिक चातक कुल कमनीय ॥ दोउन के मुखचन्द चितै, अँखिया दुनहून की होत चकोरी। दोऊ दुहुँ के दया के उपासी, दुहुँन की दोऊ करें चित चोरी॥ यों घन प्रेम दोऊ घन प्रेम, भरे बरसे रस रीति अथोरी। मों मन मन्दिर मैं बिहरे, घनस्याम लिये वृषभान किशोरी॥ आनन चन्द अमन्द लखे, चकि होत चकोरन से लैंलचो हैं। त्यों निरखे नवकंज कली, कुचमत्त मलिन्दन लों मन मोहैं। सो छबि छेम करै बृज स्वामिनि, दामिनि सी दुति जी तन जोहैं। चातक लौं घन प्रेम भरे, घनस्याम लहे घनस्याम से सोहैं।। हेरत दोउन को दोऊ औचकहीं, मिले आनि के कुंज मझारी। हेरतहीं हरिगे हरि राधिका, के हिय दोउन ओर निहारी॥ दौरि मिले हिय मेलि दोऊ, मुख चूमत है घनप्रेम सुखारी। पूरन दोउन की अभिलाख, भई पुरवै अभिलाख हमारी॥