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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२२९

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- - १९८ - पान सन्मान सों करें बिनौद विन्दु हरें, तृषा निज तऊ लागी चाह जिय जाकी है। जाचें चारु चातक चतुर नित जाहि देति, जौन खल नरनि जरनि जवासा की है। प्रेमघन प्रेमी हिय पुहमी हरित कारी, ताप रुचिहारी कलुषित कविता की है। सुखदाई रसिक सिखीन. एक रस से, सरस बरसनि या पियूष वर्षा की है। प्रार्थना ही मैं धारे स्याम रंग ही को हरसावै जग, भरै भक्ति सर तोषि कै चतुर चातकन। भूमि हरिआवै कविता की हरि दोष ताप, हरि नागरी की चाह बाढ़े जासो छन छन । गरजि सुनावै गुन गन सों मधुर धुनि, सुनि जाहि रसिक मुदित नाचे मोर मन । बरसत सुखद सुजस रावरे को रहै, कृपा वारि पूरित सदाही यह प्रेमघन ॥ आस पूरिबे की याही आस है तुही सों तासो, आन सो न जाँचिबे की आन ठानी प्रन है। तेरे ही प्रसाद पाई सुजस बड़ाई. तूही, जीवन अधार याहि जीवन को धन है। दीजै दया दान सनमान सों कृपा के सिंधु, जानि आपनो अनन्य दास खास जन है। चूक ना बिचारो या विचारे की सु एकौ प्यारे, इच्छा बारि बाहक तिहारो प्रेमघन है। .4