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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२३५

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२०४ खिलि मालती बेलि प्रफुल्ल कदम्बन, पैं लपटी लहरान लगी। सनकै पुरवाई सुगन्ध सनी, बक औलि अकास उड़ान लगी। पिक चातक दादुर मोरन की, कल बोल महान सुहान लगी। घन प्रेम पसारत सी मन मैं, घनघोर घटा घहरान लगी॥ उड़ें बक औलि अनेकन ब्योम, विराजत सैन समान महान । भरे घन प्रेम रट कवि चातक, कूकि मयूर करै जस गान॥ छनै छनहीं छन जोन्ह छुवै, छिन छोर निसान छटा छहरान। बलाहक पै जनु आवत आज, है पावस भूपति बैठि बिमान ॥ नभ घूमि रही घन घोर घटा, चहुँ ओरन सों चपला चमकान। चलै सुभ सावन सीरी समीर, सुजीगन के गन को दरसान ।। चमू चहकारत चातक चारु, कलाप कलापी लगे कहरान। मनोभव भूपति की वर्षा मिस, फेरत आज दोहाई जहान ॥ सजि सूहे दुकूलन झूलन झूलत, बालम सों मिलि भामिनियाँ।