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पुरवाई पवन प्रभाय छहराय छबि,
खो तो दिखात औ दुरत चंद बार बार।
दन बिलोकन कों रजनी - रमनि,
बस प्रेमघन घूघटें रही हैं जनु टार टार॥
बक पाँति पताका उडै नभ सिन्धु मैं, चांप सुरेस धरे छबि छाजत। जाचक चातक तोषत मोतिन लौं झरि की बरसावत॥ देखिए तो घन प्रेम भरे, प्रजा पुँज से मोर हैं सोर मचावत। आज जहाज चढ़े महाराज, मनोज मनो घन 4 चढ़े आवत॥ झरि बुन्दन बिरह बढ़ावन या सावन की रजनी में, जीगन के गन को अकास में प्रकास है। चंचला चपल चमकत चहुँ ओर चख, चितवन हूँ को ना मिलत अवकास है। प्रेमघन घन की घटा है घोर घहरात, घहरात बूंदै उपजाय उर त्रास है। पी कहाँ पपीहा साँची कहन भटू है अब, परदेसी पिय कीन आवन की आस है। बनी वर्षा की बहार विलोकिबे काज अटान चढ़ी वह बाल। दबी दुति दामिनि देखत दीपति, सुन्दर देंह लजाय कमाल। उदै घन प्रेम करै मुख मंडल, सोहत सूहे सूहे दुकूल रसाल।