पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

-२०७ लखौ जनु घेरि लियो चहुं ओर सों, चन्द अमन्दहि नीरद शरद प सुभ सीतल सौरभ सों सनि मन्द, बयारि बहै मन भावानी है। जल ताल सरोवर स्वच्छ खिली, कुमुदावली सोभा बढ़ावनी है। बरसावत सी घन प्रेम सुधा, निसि सारद सोक नसावनी है। चलिये मिलिये वृजचन्द अली, यह चाँदनी चारु सुहावनी है। उदोत है पूरब सों वह पूरब, सो मैं न जान्यो परै छल छन्द। अपूरब कैसो अपूरब हूँ, तें लखात जो पूरो प्रकास अमन्द । दोऊ बरसै घन प्रेम सुधा, चित चोर चकोरहि देत अनन्द। निसा सुभ सारद पूनव माँहि, लखे जुग सारद पूनव चन्द ॥ सौन्दर्य न होतो अनंग अनंग हुतासन, कोपहु मैं दहतो न महान । कोऊ कहतो यहि को नहिं मार, न मारतो साँचहुँ शम्भु सुजान ।। घिरी घन प्रेम घटा रति की, चित चाहि कै मूरखता मन आन। अनूपम रूप मनोहर को तुव, जौ न कहूँ करतो अभिमान । लखते वह रूप अनूप अहो, अँखिया ललचाय लुभाय गई। मन तो बिन मोल बिक्यो घन प्रेम, प्रभावित बुद्धि बिलाय गई।