पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२५०

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२१९ न्हाय मकरन्दन पराग पटं धारि हरै, परसत प्रेमघन मति मतिमन्त की। ल्यावन मनोज निज मीत काज आज चली, बाल गजगामिनी लौं बैहर बसन्त की। महकन लागी अमराई मौर मंजुल सों, खिलि गुलेलाला औ गुलाब लागे गहकन। जहकन लागी कूर कोइलैं अमन्द चन्द, लखि चहुँ ओर सों चकोर लागे चहकन॥ अहकन लागीं बरसन प्रेमघन, लखि बिरहागि की दवारि लागी दहकन। बहकन लागी ज्यों ज्यों बैहर बसन्त त्योंही, बनिता वियोगिनी अधीर लागीं बहकन। रस स्फुट फाग मैं सोही सुहाग भरी, सखियान के संग सों जैसहि छूटी। त्यों घनप्रेम परे गयो मोहन, ऐचत मोतिन की लर टूटी। बाल रँग्यो तन लाल गुलाल सों, गाल मल्यो रस सम्पति लूटी। नैननि सों अँसुवा बरसै, सिसकै सिकुरी जनु बीर बहूटी। न जग बाढ़ यो विरुद्ध विधान बखानि, बैर बिरोध बढ़ावनो है। कुल रीति अचार विचार सबै, गुन गौरव भूरि भुलावनो है।