- २१८ प्रेम सिखाय रहीं घनप्रेम, लता तरु जूहन सों लपटाई॥ मान की बान बिसारि मिल्यौ, सुनिये रही कोकिल कूक सुनाई। आज भयो ऋतुराज को राज, फिरै सिगरे जग काम दुहाई॥ सों। मंद मति भिरे भँवरे भंवरीन, प्रसून मरन्द चुचातन किलकारत कोइलैं मंजु रसालन, मंजरी सोर सुहातन सों। घनप्रेम भरी तरुते लपटी, लतिका लदि नूतन पातन सों मन बौरै न कैसे सुगन्ध सने, बन बौरे बसन्त के बातन सों। । बरखा बिताई सारी सरद सकेली आई, दुखदाई रजनी बियोगिन बिचारे की। बिलखि हिमन्तहूं को अन्त कियो कोऊ बिधि, सिसिर सिरान्यो आस आवनि अवारे की। उमडयो उदधि रस जाग्यो अनुराग राग, पाई ना खबर अजों प्रेमघन प्यारे की। कसे धरों धीर बलबीर बिन बीर लखि, बनी बाँकी बनक बसन्त बजमारे की। चूंघट उघारत ललित लतिकान कों, बजाय मंजु पैंजनी भंवर भनकन्त की। मुसकाय कुसुम विकासन के मिस, दाडिमन दरकाय दिखरावे दुति दन्त की।
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२४९
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