२२६ लाभ को न लेस लिखे भाल सों अधिक, धन मान जस काज देस देस धाइबे में है। साधन कठिन जोग जप जेते प्रेमघन, समय गँवाय कहा पछताइबे में है। तजि और आस जनि होय तू निरास, सुख राधिका रमन के सरन जाइबे में है। प्रेम घन बरसत नेह यह बरसत रूप वह, वरसत मेह सांझ समय दूर धाम है। मन उपजावै ललचावै यह, मन्द मुसकाय छबि धरि सत काम है। गरजि गरजि बहु त्रास उपजावै उर, निपट अकेली दूसरी न कोऊ बाम है। कहा करूं कैसे जाऊं जानि ना परत, उतै घेरे घनस्याम इतै घेरे घनस्याम है। भाई पुरवाई की चलनि चहँकार चारु, चातक चमू की निसि द्योस चारो पहरन । अम्बर उड़त बगुलान की अवलि कुंज, नाचि नाचि मुदित मयूर लागे कहरन । कलित कदम्बन सों लपटी लवंग लता, छिपि छन छन छन छबि छबि छहरन । प्रेम घन मन उपजाय सरसाय हिय घेरि घन सघन घनेरे लगे घहरन । मैं लसत, अतसी कुसुम सम शोभा बिज्जु लता के बसत पट पीत अभिराम है। अवली भली है बगुलान की बिराज रही, गर मैं मनोहर के मोतिन को दाम है।
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२५७
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