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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२५६

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२२५ है घनप्रेम मनोहरता, मुखि की दुति तामैं दिखाय निराली। ऐसी प्रभा निरखेहूँ भला, केहि कारन कौन निकालिहै जाली। घूमत बाग भरी अनुराग, सुहाग लसी चहुँ ओर तू आली। त्यागि के चित्र विचित्रित भौन, झरोखन कुंजन मैं चलि हाली। छाई लतान के जालन सो, कढ़ि अंग अनंग की ज्योति उजाली। लखि मोहे सबै घनप्रेम तबै केहि कारन कौन निकालिहै जाली। भीतर भौन मैं बैठी अरी, तू जबै निखरी मुख जोन्ह रसाली। ग्रीषम के दिन दोपहरी हूँ, कढ़ी झंझरीन सों ज्योति उजाली॥ घनप्रेम प्रकास को काज नहीं, तो झरोखो बनावनो लाभ से खाली। केहि कारन कौन निकालि है जाली॥ x X तार्यो कृपा करि आप सदाहि, अजामिल आदि अधीन घनेरे। पै नहीं पापी जु पायहौ और, तिहूँ पुर में तुम मों सम हेरे। जो अधमीन उधारन हो, घन प्रेम तो नाथ दया दृग देरे। धारन 'मन्दर सुन्दर साँवरे, आय बसो मन मन्दिर मेरे॥ तजि साज सिंगार इकन्त बसी, भरै सीरी उसास ज्यों भोगिनी है। दृग मुँदेहि ध्यान में लीन सदा है, मनो घन प्रेम प्रयोजनी है। नहिं बूझै बुझाये झिपै झिझिकै, वह कौन से रोग की रोगिनी है। न बिचारत कैसहूँ जानि परै, वह जोगिनी है कि वियोगिनी है। औरन की जनि आस करो बनि, हीन न दीन से बैन उचारो। नाँहि कोऊ के बनाये बने, बिगरै न कहूँ बिगरे हिय धारो॥ संकट शत्रु सबै नसि है, बद को बदि होत सदा मुख कारो। माखन चाखन हारो वही, सब को घनप्रेम है राखन हारो॥ विषय बिधान विष संचय बिचार हिय, प्रेमघन कहा मन भरमाइबे में है।