पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२३२ + द्रवहु दया कर दास पर, हे प्रभु करुना ऐन। दीनबन्धु तुव चरन तजि, सरन मोहि अब है न॥१०॥ द्रवहु दीन पर दयानिधि, करहु कृपा बिस्तार। हरहु रोग दुख दोष सब, सविता जगदाधार ॥११॥ छमहु सकल अपराध अब, हे प्रभु कृपा निधान। रोग दोष दुख दास के, हरहु भानु भगवान ॥१२॥ अखिल लोक रंजन करत, हरत सकल तम रासि। प्रभु दिनेस त्यों दास के, देहु दोष दुख नासि ॥१३॥ हरहु नित्य जग अघ तिमिर, रोग शोक दुख आप। मेरो दिनकर देव कर देव दूर त्यों ताप ॥१४॥ जप तप धर्म अनेक करि, तोषि सकत को तोहि । दया दीठ निज फेरि प्रभु, तुमहिं बचावहु मोहिं ॥१५॥ कर्म धर्म जप ज्ञान बल, औरहिं निज निस्तार। मो कँह तौ प्रभु आपकी, कृपा एक आधार ॥१६॥ जय जय दिनकर देव कर देव दोष दुख दूरि। या निज दास अनन्य के, हरहु नाथ भय भूरि॥१७॥ मैं पापी पामर परम, तप्यो पाप के ताप। द्रवहु दया वारिद क्षमहु, नाथ सरन अब आप॥१८॥ निज दुष्कर्म समूह फल, पाय बन्यौं मैं दीन। दीनबन्धु करि कृपा अब, बनवहु प्रभु दुख हीन ॥१९॥ तुम तजि और न सरन मोहि, कहूँ भानु भगवान। द्रवहु दया करि नाथ यह, हरहु दोष दुख दान ॥२०॥ यद्यपि कृपा असंख्य तुव, पावहु आठहु जाम। नूतन जाचन हितन मैं, लखौं और कहुँ ठाम ॥२१॥