हे प्रभु यह दासानुदास तुव परम तुच्छतर। भूलि तुम्हें तुव दुस्तर माया को बनि अनुचर ॥५८॥ बिना बिचार बिना डर त्यों है तासों प्रेरित। मानि परम सुख दियो पापही मैं अपनी चित॥५९॥ मम कृत पापन की संख्या कोउ सकै नहीं गनि। तिन कहँ हे प्रभु सकौं भला मैं कौन भाँति भनि॥६०॥ महा महा उत्कट अघ करतहिं रह्यौं निरन्तर। काम क्रोध मद मोह लोभ बस द्वै निसिवासर ॥६१॥ जिन फल भोगन की चिन्ता कबहुँ न उर आन्यों। हँसी खेल सम निपट तुच्छ जा कहँ अनुमान्यों ॥६२॥ । अब तिनके फलन लेखि बाढ़ी उर चिन्ता। जनको हे प्रभु तुमहिं छाड़ि नहिं और निहन्ता ॥६३॥ हे प्रभु यह गुनि कै तुव चरन सरन अब आयो। निज दुख मेटन काज जोरि कर सीस नवायो॥६४।। या सरनागत दीन दास पर दया दीठि दे। सफल मनोरथ करहु सकल दुख दोष दूरि कै॥६५॥ हे हे करुना ऐन रैन सुख सब मनोरथहिं। हरहु दसा के सकल दोष दुख दायक पापहि ॥६६॥ हे हे करुणागार एक आधार के। हरहु दास के दुख प्रभु दायक फल अभिमत के॥६७॥ त्राहि त्राहि हे दीनबन्धु करुणा के सागर। त्राहि त्राहि त्रयताप हरन, तिहुँ लोक उजागर ॥६८॥ तासों अब हे नाथ! त्यागि औरन की आसा। आयो तुमरी सरन लहन मन की अभिलासा ॥६९॥ जगत
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२६९
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