२३८.- . विप्रन। बहु धर्मराज कुन्तीसुत तुंव · प्रसाद . चिर दिन लौ बन में करि सक्यो नाथ परिपालन ॥४६॥ जे आराधत तुमहिं तिनहिं नहिं उभय लोक भय । मन माने फल लहत सहज हे प्रभु बिनु संसय ॥४७॥ रोग सोग रिपु पाप ताप तिनकहुँ संपनहुँ नहिं। जे नर वर प्रभु भक्ति सहित तुम कहँ आराधहिं॥४८॥ नमस्कार जे तुम कहँ करत नाथ प्रति वासर। सहसहु जन्मन दुखी दरिंद वे होत कबहुँ नर ॥४९॥ जे षष्ठी सप्तमी दिवस रवि हे प्रभु तुम कह। पूजत भक्ति सहित दुर्लभ न तिन्हें कछु जग महँ॥५०॥ पापी परम सुरापी निज कृत कर्म फलन लहि। दुखित सरन तुव आय नसावंत निज सन्तापहि ॥५१॥ रोग सोग दुख दारिद सों आरत हूँ जे नरं। तुमहिं अराधत जे प्रभृतिन सों भंय भजि जात दूरतरं ॥५२॥ भूण निहन्ता भूसुर हू के जीवन हारी। मित्र · द्रोह विश्वासघात कृत पातक भारी॥५३॥ तेऊ तुव आराधन करि निज पाप नसावत.। तुम्हरी कृपा पाय सहजहिं चारौ फल पावत ॥५४॥ महापाप फल: कुष्ट आदि जे रोग भयंकर। तुहि आराधत होत सहज तिन सों विमुक्त नर ॥५५॥ औरहुँ भाँति भाँति के जे जग में दुख भारी। तिन सब कहँ प्रसन्न कै सकहु सहज तुमं टारी॥५६॥ तासों अब हे नाथ! त्यागि औरन की- आसा। आयो. तुमरी सरन लहन- मन की अभिलासा ॥५७॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२६८
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