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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२७४

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२४४ स्वस्थ भये स्वच्छन्द स्वाद लहि हर्षित हम सब। पाय ज्ञान विद्या नव उन्नति लखन लगे अब।। 1 हरे अनेकन दुख राजा बिन कहे हमारे। बचे अहैं, वा नए भए जे टरत न टारे॥ वे बिन जाने अहैं, करें का वे बिन जाने। हमहुँ कहैं किमि बसत दूर वै देश बिराने । गयहुँ न राज सभा में हम सब पैठन पावें। कहत कर्मचारी गन ये सब इत न आवै॥ राज सभा में काज कहा है जित जातिन को। दुःख यहै जो नहि उपाय अब है कछु इनको। अहै ईस माया विचित्र नहिं जाय बखानी पूरब जन्म कर्म हूँ को फल मन अनुमानी।। बृटिश राज की प्रजा बृटिन औ हिन्द उभय की। लखहु दशा पर युगल भाग के अस्त उदय की॥ वै निज देश हेतु बिचरत हैं नीति नियम सब। बिन उनकी सम्मति कछु राजा करत भला कब ॥ राज बृटिश को अति बिशाल जाकहँ तुम जानत। जामें अस्त न होत भानु यह निश्चय मानत ॥ तिन सब को वेई निज प्रतिनिधि द्वारा शासत । राज शक्ति साँचहुँ उन परजनहीं मैं भासत ॥ राजा नामै हेतु करत सब प्रजा प्रबन्धहि । पर उन कहँ इतनहूँ मैं सपनेहुँ सँतोषनहिं । औ हम भारतवासी गनः निज दशा कहन को। जाय सकल नहिं तहाँ भूलि के एकौ छन को॥