पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हार्दिक हर्षादर्श अर्थात् महारानी विक्टोरिया की हीरक जुबली के अवसर पर विचित कवित्त संकित सत्रु उलूक लुके लखि जासु प्रताप दिनेसहि जानी। फूली रहै प्रजा कंज सुखी सर देस में न्याय के नीर अघानी॥ कीरति, वय, परिवार औ राज दराज मैं है 'घन प्रेम' को सानी? देख्यो निहारि विचारि भलें जग तो सम जाई तुही महरानी। दोहा बिजयिनि श्री विक्टोरिया देवी दया निधान । करै तिहारो ईस नित सहित ईसु कल्यान । सपरिवार सुख सों सदा रहित आधि अरु व्याधि । राजहु राज सुनीति संग प्रजा परम हित साधि । कीरति उज्वल रावरी और अधिक अधिकाय। सारद पूनौ जोन्ह सम रहै छोर छिति छाय॥ रोला छन्द धन्य दीप इंग्लैण्ड, नगर लण्डन सुन्दर वर। राज प्रसाद “केनसिंगटन" धनि जाके अन्दर।।