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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३०

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जीर्ण जनपद अथवा दुर्दशा दत्तापुर

श्रीपति कृपा प्रभाय, सुखी बहुदिवस निरन्तर। निरत बिबिध व्यापार, होय गुरु काजनि तत्पर ॥१॥ बहु नगरनि धन, जन कृत्रिम सोभा परिपूरित । बहु ग्रामनि सुख समृद्धि जहां निवसति नित ॥२॥ रम्यस्थल बहु युक्त लदे फल फूलन सों बन । ताल नदी नारे जित सोहत अति मोहत मन ॥३॥ शैल अनेक शृंग कन्दरा दरी खोहन मय । सजित सुडौल परे पाहन चट्टान समुच्चय ॥४॥ बहत नदी हहरात जहाँ नारे कलरव करि। निदरत जिनहिं नीरझर शीतल स्वच्छ नीर झरि ॥५॥ सघन लता द्रुम सों अधित्यका। जिनकी सोहत । किलकारत बानर लंगूर जित, नित मन मोहत ॥६॥ सुमन सौरभित पर जहँ जुरि मधुकर गुजारत । लदे पक्व नाना प्रकार फल नवल निहारत ॥७॥ बर बिहंग अवली जहँ भांति भांति की आवति । करि भोजन आतृप्त मनोहर बोल सुनावति ॥८॥

यह ग्राम प्रेमघन जी के पूर्वजों का निवासस्थान था और प्रेमघन जी भी इसी ग्राम में १९१२ वैक्रमीय में उत्पन्न हुए थे। इस ग्राम की प्राचीन विभूति तथा आधुनिक दशा का इसमें यथार्थ चित्रण है। 1 पर्वत का ऊपरी भाग वा भूमि।