पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

कोऊ तराने गावत, कोउ गिटगिरी भरै जहं।
कोऊ अलापत राग, कोऊ हरिनाम रटैं तहँ॥९॥
धन्यवाद जगदीस देन हित परम प्रेम युत।
प्रति कुञ्जनि कलरवित होत यों उत्सव अद्भुत॥१०॥
जाके दुर्गम कानन बाघ सिंह जब गरजत।
भाजत डरि मृग माल, पथिक जन को जिय लरजत॥११॥
कूकन लगत मयूर जानि धन की धुनि हर्षित।
होत सिकारी जन को मन सहसा आकर्षित॥१२॥
हरी भरी घासन सों अधित्यका छबि छाई।
बहु गुणदायक औषधीन संकुल उपजाई॥१३॥
कबहुँ काज के, व्याज काज अनुरोध कबहुँ तहँ।
कबहुँ मनोरंजन हित जात भ्रमत निबसत जहँ॥१४॥
कबहुँ नगर अरु कबहुँ ग्राम, बन के पहार पर।
आवश्यक जब जहाँ, जहाँ को कै जब अवसर॥१५॥
अथवा जब नगरन सों ऊबत जी, तब गाँवन।
गाँवन सों बन शैल नगर, हित मन बहलावन॥१६॥
निवसत, पै सब ठौर रहनि निज रही सदा यह।
नित्य कृत्य अरु काम काज सों बच्यो समय, वह॥१७॥
बीतत नित क्रीड़ा कौतुक, आमोद प्रमोदनि।
यथा समय अरु ठौर एक उनमें प्रधान बनि॥१८॥
औरन की सुधि सहज भुलावत हिय हुलसावत।
सब जग चिन्ता चूर मूर करि दूर बहावत॥१९॥
मन बहलावनि विशद बतकही होत परस्पर।
जब कबहूँ मिलि सुजन सुहृद सहचर अरु अनुचर॥२०॥
समालोचना आनन्दप्रद समय ठाँव की।
होत जब, सुधि आवति तब प्रिय वही गाँव की॥२१॥
जहँ बीते दिन अपने बहुधा बालकपन के।
जहँ के सहज सब विनोद हे मोहन मन के॥२२॥