पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२७९ दूर दूर के कानन कढ़ि तरु पातन चूसे। तिनकी छालनि छोलि चले जनु सम्पति मूसे॥ पहुँचे घर लै ताहि कूटि अरु पीसि पकाये। रुदत वृद्ध बालकन ख्याय कोउ भाँति चुपाये॥ या विधि पसु गन के जीवन आधार हाय हरि। बिन चारे पसु मारि, जिए कछु दिन संतोष करि॥ पै जब याहू सों निरास ये भये अभागे। लंघन करि करि त्राहि, त्राहि हरि टेरन लागे॥ कृषिकारन की होय भयंकर दसा जब इमि। भिच्छुक गन के रहैं प्रान फिर तौ भाषौं किमि ॥ पेट चपेट चोर, डाकू बनि कितने धाये। लूटि पाटि जिन किते धनिक जन दीन बनाये॥ मरे किते धन सोच किते बिन अन्न बिना जल। बिना बसन गृह शीत रोग सों वै अति निर्बल॥ हाहाकार मच्यो चारहुँ दिसि महाप्रलय सम। बचे भारती नरन जियन की रही आस कम॥ खोय मध्यवित लोग, बसन, भूषन, पसु, गृह थल। मान बिबस मरिबो मान्यो भिच्छाटन सो भल। सहि न सके जब भूख पीर कातर हिय वै करि। सपरिवार करि आतमघात गये सुख सों मरि॥ मरत असंख्य मनुज लखि तेरो धर्म आय बस। मेकडानल के व्याज दियो जीवन को ढाढ़स ॥ उमड़ि मनहुँ पावस घन अन धन बरसन लाग्यो। सूखे धान समान प्रजा हिय हरसन लाग्यो। जिहि जल के बल बढ़े उमड़ि ज्यों नदी नारे। अकाल सँहारक दीन सहायक सारे॥ लहि जीवन आधार धाय जीवन हित आये। चहुँ ओरन सों दीन मीन संकुल अकुलाये। २० काज