२८० जिहि जीवन बिन जीवन की आसा जिय त्यागे रहे सोई जीवन लहि सुख सों जीवन लागे। सोइ जीवन भरि उतिराने सर, ताल, झील सम॥ ठौरहि ठौर बने अनेक दीनालय उत्तम ॥ बहु जीवन सम जिन मैं जीवन जीवन लागे। अन्ध, पंगु, असहाय, दीन, दुर्बल दुख त्यागे॥ सुन्दर, भोजन, पान पाय विनहीं प्रयास के। खाय अघाय असीसन लागे प्रति रोमन ते॥ बिन दल तरु नहिं रह्यो ठौर जिहि ठाढ़ होन कह। पाँय पसारे सोवत वे सुख सो भवनन महँ। कम्पित गात, सीत सिकुरे जे रहे दिगम्बर। जीये तेऊ पाय गरम अम्बर अरु कम्बर।। भूख, सीत सों कातर कै जे भये रोग बस। चारु चिकित्सा लहत तौन हित जौन चहत जस ॥ राह चलत असमर्थ दीन जन दीन अन्न धन। लटे गिरेहू लादि ल्याय कीनो परिपालन ॥ सपनेहूँ तजि याहि काम जिनके कछु नाहीं। चैन करत दिन रैन असीसतु औ तुम काही ॥ त्यों असंख्य अज्ञान दीन बालकन अनाथन। किये जननि लौं तेरे अनाथालय परिपालन। प्याय दूध अरु ख्याय अन्न जिन धाय खेलावत। देख भाल हित मेम और मिस जिनके आवत॥ खेलत खेलन योग्य खेल, झूलत चढ़ि झूलन। पढ़त लिखत, गुन सिखत गुरुन सों आनन्दित मन॥ निज घरहूँ मैं रहि ते यह सुख कबहुँ न लहते। मातु पिता तिनके कब या बिधि पालन करते॥ खुले चिकित्सालय बहु ऐसे दीनन के हित। घरसों अधिक सुपास लहत रोगी जन अँह नित ॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३०९
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