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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३१६

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२८७ पै जेते जन दीन हीन धन और हीन मति। जिनहिं दियो विधि भिच्छाटन तजि और नाहिं गति ॥ जिन नहिं जान्यो सुखद राज तेरे को कछु सुख । नहिं जिन खोल्यो तुमहिं असीसन काज कबहुँ मुख ॥ राज गहन दिन सों आसा जिनकी ही लागी। साम्राज्य पद गहन महा उत्सव सुनि जागी।। पै बराटिका लहि न एकहू जो मुरझानी। बीती जुबिली मैं जो सूखी सी दरसानी॥ हरित करन फिरि आसालता न उनकी केवल। आयो यह दुष्काल देन तिन माहिं फूल फल। इतने दिन की कसर सहित आसीस देन हित। व्याज सहित बहु धन्यवाद देवे को नित नित ॥ उन दीनन की अधिक दीनता आनि बढ़ाई। तुम सों उनकी जननि प्रान रच्छा करवाई। जामै हीरक जुबिली मैं तेरी भारत की। सकल प्रजा इक संग हुलसि हिय सों सब मत की। देहिं बधाई तोहि अनन्दित ईस मनावै। नवल कृपा तुव पाय बचे सब दुख बिनसावै॥ लखियत तैसे ही सब के उर आनन्द भारी। पैयत सबहिं कृतज्ञ बनो तेरो इहि बारी॥ बीते सब उत्सव सों तेरे इहि अवसर पर। प्रमुदित परम लखात भारती प्रजा नारि नर॥ जिनके उर उत्साह भार को सकि न सँभालत। काँपत है भूकम्प ब्याज यह भूमी भारत॥ किधौं राजराजेसुरी तुमहिं सी सुखदानी। की हीरक जुबिली में मोद महा मनमानी। सुभग समय पर उचित उछाह जगहि दरसावन । जोग न जानत निज सुत गन के पास विपुल धन ॥