पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३३२

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जाको फल अतिसय अनिष्ठ लखि सब अकुलान।
राज कर्मचारी अरु प्रजा वृन्द बिलखाने॥
संसोधन हित बारहिं बार कियो बहु उद्यम।[१]
होय असम्भव किमि सम्भव, कैसे खल उत्तम॥
हिन्दी भाषा सरल चह्यो लिखि अरबी बरनन।
सो कैसे ह्वै सकै[२] बिचारहु नेक विचच्छन?
मुगलानी, ईरानी अरबी, इंगलिस्तानी।
तिय नहिं हिन्दुस्तानी बानी सकत बखानी॥
ज्यों लोहार गढ़ि सकत न सोने के आभूषन।
अरु कुम्हार नहिं बनै सकत चाँदी के बरतन॥
कलम कुल्हाड़ी सों न बनाय सकत कोउ जैसे।
मूजा सों मल मल पर बखिया होत न तैसे॥
कैसे हिन्दी के कोउ सुद्ध सब्द लिखि लैहै।
अरबी अच्छर बीच, लिखेहुँ पुनि किमि पढ़ि पैहै?


  1. बोर्ड आफ़ रेवन्यू को बार बार आदेश पत्र निकालना पड़ा और और उसमें बार बार इस बात पर ज़ोर दिया गया कि कचहरियों की कार्रवाई फ़ारसीपूरित उर्दू में न लिखी जाय, वरंच ऐसी "भाषा में लिखी जाय जैसी कि एक कुलीन हिन्दुस्तानी फ़ारसी से पूर्णतया वंचित रहने पर भी बोलता हो।" ऐसी ऐसी आज्ञाएँ निकलते प्रायः चौथाई शताब्दी समाप्त हो गई परन्तु कुछ भी फल न हुआ वरंच भाषा नित्य और भी कड़ी ही होती गई!
  2. पायनियर अपने १० जनवरी सन् १८७६ ई॰ के पत्र में लिखता है कि 'फ़ारसी लिपि और शब्दों में इतना घनिष्ट सम्बन्ध है कि इस विषय (भाषा) का सुधार तब तक पूर्णतया हो ही नहीं सकता जब तक गवाही हिन्दी (नागरी) अक्षरों में न लिखी जायगी।