पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३३१

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धन्य आप हे प्रभु प्रियवर प्रवीन मेकडोनल। धन्य न्याय परता की बानि तिहारी निःछल॥ बहु दिवसन लौं राजसदन सों रही निकारी। सहत अमित अन्याय निरन्तर बदी बिचारी॥ भारत सिंहासन स्वामिनि जो रही सदा की। जग में अब लौं लहि न सक्यो कोऊ छबि जाकी॥ जासु बरन माला गुन खानि सकल जग*[१] जानत। बिन गुन गाहक सुलभ निरादर मन अनुमानत ॥ होय अलग जो रही अजौ लौं देवनागरी। गुनि गुनगन गुनवान न्याय रत आप आदरी॥ यवन राज के समय न अखरयो याहि निरादर। रहयो सुभायहिं जो अनीति आगार उजागर॥ अरु पुनि रीति सहज यह निज वस्तुहि जग भावत। तासों नृप भाषा अरु बरन दोऊ कहरावत ॥ भये पारसी भाषा संग अरबी के अच्छर। प्रचरित यवन राज संग राज काज अभ्यन्तर॥ राजसदन बाहर पै तऊ. चारिहू ओरन । राजत रही नागरी ही गृह प्रजा करोरन ।

  1. * प्रोफेसर मोनियर विलियम्स कहते हैं कि “स्थूल रूप से यह कहा जा सकता है कि "इन देवनागरी अक्षरों से बढ़कर पूर्ण और उत्तम अक्षर दूसरे नहीं हैं।" प्रोफेसर साहिब ने तो इन्हें देवनिर्मित तक कह दिया है। सर आइजेक पिटम्यान ने कहा है कि "संसार में सर्वांगपूर्ण यदि कोई अक्षर हैं तो वे हिन्दी के हैं।" पायनियर पत्र ने भी १० जुलाई सन् १८७३ ई० के पत्र में लिखा है कि "नागरी अक्षर धीरे में लिखे जाते हैं, परन्तु जब एक बार लिख गये तो छपे हुए के समान हो जाते हैं, यहाँ तक कि उसमें लिखे हुए पद को एक ऐसा पुरुष भी जिसे उसके अर्थ को आभामात्र भी नहीं ज्ञात है उन्हें शुद्धतापूर्वक पढ़ लेगा।" मिस्टर बोम्स ने भी इसी मत का समर्थन किया है तथा रेवरेण्ड केलाग लिखते हैं कि "पचीस करोड़ भारतवासियों में एक चौथाई वा ६ या ७ करोड़ मनुष्यों की हिन्दी मातृभाषा है।" मिस्टर तिनकाट लिखते हैं कि "उत्तर भारतवर्ष की भाषा सदा से हिन्दी थी और अब भी है।"