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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३३४

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—३०६—

को पढ़ि पण्डित होय ताहि प्रभु नेक बिचारौ।
लिखै शुद्ध किहि भाँति कौन हिय मैं निरधारौ॥
बरु पारसी प्रचार रहयो यासों अति सुन्दर।
एकहि भाषा लिखी जाति निज अच्छर भीतर॥
यह विचित्रताई जग और ठौर कहुँ नाहीं।
पँचमेली भाषा लिखि जात बरन उन माहीं॥
जिनसे अधम[] बरन को अनुमानहुँ अति दुस्तर।
अवसि जालियन सुखद एक उर्दू को दफतर॥
जिहि तैं सौ सौ साँसति सहत सदा बिलखानी।
भोली भाली प्रजा इहाँ की अतिहि अयानी॥
पै नहिं जानि परे यह कौन मोहनी डारी।
निज प्रेमी बनयो बहु अँगरेजन अधिकारी॥
बारहिं बार निहारि अमित औगुन जिन याके।
कियो प्रचार न बन्द करत प्रतिकारहि थाके॥
अतिसय अचरज होत गुनत यह बात बिचित्रहिं।
भाषा अरु अच्छर दोऊ दोउनहूँ के नहिं॥


  1. प्रोफेसर मोनियर विलियम्स ने ३० दिसम्बर सन् १८५८ ई॰ के टाइम्स नाम के पत्र में फ़ारसी अक्षरों के दोष पूर्णरूप से दिखाये हैं। उनका कथन है कि "इन अक्षरों को सुगमता से पढ़ने के लिये वर्षों का अभ्यास आवश्यक है" वे कहते हैं कि "इन अक्षरों में चार 'ज' होते हैं तथा प्रत्येक अक्षर के उसके प्रारम्भिक, मध्यस्थ, अन्तिम वा भिन्न होने के कारण चार भिन्न भिन्न रूप होते हैं।" अन्त में प्रोफेसर साहिब कहते हैं कि "चाहे ये अक्षर देखने में कितने ही सुन्दर क्यों न हों, पर न कभी पढ़े जाने योग्य हैं, न छपने योग्य हैं और पूरब में विद्या और सभ्यता की उन्नति में सहायक होने के तो सर्वथा अयोग्य हैं।" डाक्टर राजेन्द्रलाल, प्रोफेसर डासन और मिस्टर ब्लाकमैन तथा राजा शिवप्रसाद आदि बड़े बड़े विद्वानों ने भी दढ़तापूर्वक प्रोफेसर मोनियर विलियम्स के इस मत का समर्थन किया है।