पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३३५

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नहिं राजा के और प्रजा[१] हूँ के जे नाहीं।
तऊ सहत दुख दोऊ काज नित करि तिन माहीं॥
दोऊ नहिं लिखि पढ़ि सकत न समुझत[२] जाहि भली बिधि।
रहे तैरि पै तऊ दोऊ दुर्भाग पयोनिधि॥
यह अन्धेर मचत इत बीते पैंसठ बत्सर।
थकी पुकारत प्रजा सुन्यो पै कोऊ न ध्यान धर॥
उच्च राज अनुसासक हू कै बार सुधारन।
चाहे याके दोष, दूरि करि सके न पै कन॥
बोयो बिटप बबर चहत चाखन रसाल रस।
बेतस बेलि बढ़ाय मालती मुकुल मोद जस॥
चहत बार बनिता सों पतिब्रत को प्रन पालन।
सो कैसे ह्वै सकै काक जिमि होत मराल न॥
जो जो जतन सुधार हेतु याके अनुसासक।
लोग कियो सो भयो दोषही को परिवर्धक॥
यवन राज तें लिखत पारसी जे चलि आये।
अँगरेजी समय हुँ ते तैसे ही लौ लाये॥


  1. मिस्टर ग्राउस इसी विषय पर लिखते हैं कि—"आजकल की कचहरी की बोली बड़ी कष्टदायक है क्योंकि एक तो यह विदेशी है और दूसरे इसे भारतवासियों का अधिकांश नहीं जानता। ऐसे शिक्षित हिन्दुओं का मिलना कोई असाधारण बात नहीं है, जो स्वतः इस बात को स्वीकार करेंगे, कि कचहरी के मुशियों की बोली को वे अच्छी तरह बिल्कुल नहीं समझ सकते और उसके लिखने में तो वे निपट असमर्थ हैं। इसका बड़ा भारी प्रमाण तो यह है कि कानूनों और आज्ञाओं के सरकारी भाषानुवाद को कोई भी भलीभाँति नहीं समझ सकता, जब तक एक व्यक्ति अँगरेजी से मिलाकर उन्हें न समझा दे।"
  2. मिस्टर फ्रेडरिक पिनकाट लिखते हैं कि "भारतवासियों को जिनकी यह मातृभाषा मानी जाती है, अँगरेजों की तरह इसे स्कूलों में सीखना पड़ता है और भारतवर्ष में यह विचित्र दृश्य देख पड़ता है कि राजा और प्रजा दोनों अपने कार्यों का निर्वाह ऐसी भाषा द्वारा करते हैं जो दोनों में से एक की भी मातृभाषा नहीं है।