पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३४०

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पसारा॥ अनुसासक अनुसासन बस, लगि लाभ लोभ जन। विरच्यो जनु निज देस काज दुर्गति के साधन ॥ प्रचरित कै जे विविध पाठसालन के द्वारा। प्रजा वृन्द मैं महा मूढ़ता पुँज जानि राज भाषा इहि राज काज हित साधन। लागे उर्दू पढ़न लोग तजि निज निज भाषन॥ इने गिने नव बने ग्रन्थ पढ़िबे ते याके। पूरन भाषा ज्ञानहुँ होत न, तब पुनि ताके-- पुष्टि काज पारसी पढ़त जन हारि अन्त पर। वाहू को पढ़ि पै न लाभ कछु लहत अधिक तर॥ होत अधिक इक भाषा ज्ञान अवसि पढ़ि ता कह। पै नहिं विद्या ग्रन्थ कोऊ इन दोउ भाषन महँ॥ तासों विद्या पढ़िबे काज पठन अरबी को। अति आवश्यक पंडित बनिबे काज सबी को। पढ़ि अरबी अति कठिन चहै मोलवी कहावै। पर इतनेहूँ पै उर्दू नहिं ताकहँ आवै ।। हिन्दी, तुरकी, संस्कृत सबद आवत नहिं कछु चलत मोलबिन हूँ की कछु तब ॥ अब कहियै जो फँस्यो फन्द उर्दू के जाई। कितनी भाषा पढ़े सकै पण्डित क़हवाई ।। सिच्छा हित जे बनी पाठशाला बहुतेरी। तिन महँ उरदुहि उपयोगी गुनि प्रजा घनेरी॥ पढ़तः छाँड़ि हिन्दी भाषा · भूषित देवाच्छर। सुगम, सुषठ, सुन्दर, साँचहुँ सब गुन के आगर॥ अंगरेजिहु के संग देस भाषा के नाते। उरदुहि अधिक पढ़त जन सेवा हित ललचाते॥ विद्यालय में पहुंचि पारसी पास पहुंचि करि। करत परिच्छा पास सुगम हित साधन हिय धरि॥ अँगरेजी, जब।