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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३४१

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जासो सब सिच्छित बनि गये मनहूँ परदेसी।
निज भाषा को ज्ञान जिन्हे नहि उन सो बेसी॥
निज आचार विचार धरम को मरम न जाने।
परम्परा विपरीत नीति कुल रीति भुलाने॥
बदल्यो सहज सुभाव रुची रुचि नई नई तब।
प्रचरित भई कुरीति मई बहु जिहि लखियत अब॥
सिच्छित सँग सो अज्ञहु करत अनुकरण तिन को।
इहि विधि औरै रूप भयो भारत बासिन को॥
बिना ज्ञान निज भाषा बिन जाने निज अच्छर।
रहत अज्ञ औरन भाषा पढ़ि भारतीय नर॥
छूटि जात सम्बन्ध संस्कृत सो पुनि सब बिधि।
जो जग भाषा जननि सकल विद्या की जो निधि॥
जो प्रधान भाषा भारत की आदि समय सन।
दुहूँ लोक हित जो भारतियन को जीवन धन॥
जाके बिन कछु धरम करम को मरम न जानत।
अरु आचार विचार विविध व्यवहार क्रमागत॥
बिद्या, दर्सन, कला, नीति विज्ञान ज्ञान तिमि।
तिज इतिहास जाति मर्यादा परम्परा इमि॥
बिन जाने भारत सन्तान विविध निति प्रति।
त्यागि शील कुल रीति नीति बनि गये हीन गति॥
नहि केवल हिन्दुनही की यह अवनति कारिनि।
मुसल्मान गनहूँ की साँचहूँ उन्नति हारिनि॥
तऊ विज्ञ हिन्दू जन जब जब दियो दुहाई।
याहि बदलिबे काज राज दरबारहि जाई॥
तब तब कियो विरोध यवन गन बिना बिचारे।
निज चेला लाला लोगन सँग लै हठ धारे॥
निज स्वारथ सकोच समय स्रम हित हित हानी।
सकल देस की करत न आन्यो जिन मन ग्लानी॥