पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३४२

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धन्य भाग्य भारत बहु दिन सों जित ऐसे जन।
जनमत जे नित करत हानि आपनी निज हाथन॥
हितहु करत सासक गन के भ्रन भम उपजावत।
सहज सुभावहिं तिहि कर्तव्य विमूढ़ बनावत॥
जो निज दुख को हेतु सुखद कहि ताहि सराहैं।
परमानन्द अलभ्य लाभ लखि विलखि कराहैं।
जासों दसा जथारथ प्रजा बृन्द की जानी।
जात नहीं कोऊ भाँति परत उलटी पहचानी॥
तुम से मति आगार उदार न्याय रात प्रभु बिन।
समझि सकै को भला विलच्छन अति लीला इन॥
बरिस पचासन लौं कोरिन अनुसासक आये।
सौ २ साँसति सहे न कछु उपाय करि पाये॥
समुझि ताहि श्रीमान सहज तृन के सम तोरयो।
सुनि २ विविध विरोध न्याय सों मुख नहिं मोरयो॥
दुख कण्टक नहिं कियो यद्यपि निर्मूल देस हित।
तीखी खुरपी तऊ प्रजा कर कियो समर्पित॥
बोयो अति सुभ सुखद बीज ता शक्ति नसावन।
सीच्यो भारत प्रभु सम्मति के सलिल सुहावन॥
नित निराय कण्टक परिवर्धन की अधिकारी।
देस प्रजा को कियो आप अति उचित विचारी॥
यद्यपि तिनकी दसा छिपी नहिं नेक आप सन।
बुधि विद्या उद्योग हीन सब जाके कारन॥
पूरबवत सो बीच कचहरी उर्दू बीबी।
बैठी ऐंठी करत अजहुँ सौ सौ विधि सीबी॥
लखि आवत नागरी नागरी बरन बरन तकि।
नाक सकोरति, भौंहँ मरोरति औचकहीं चकि॥
धरकत छाती, मन मैं समुझि सोचि सकुचाती।
निज अपमान दिवस नेरे गुनि २ अकुलाती॥