पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३४८

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जब याके गुन जानि जाइहैं तब ही नर।
यहै बोलिहैं बोली लिखिहै एई अच्छर॥
जथा संस्कृत रही राज भाषा सब केरी।
होइहि त्योँ नागरी नाहिँ अब है बहु देरी॥
राज, रेल, अरु डाक सबै थल एक बनाये।
भिन्न देस बासिनहिँ एक के मेल मिलाये॥
जब एकै मति, गति, सिच्छा, दिच्छा, रच्छा विधि।
एक हानि औ लाभ एक सासक सोँ है सिधि॥
एक चाल व्योहार संग सब एक होत जब।
इक अच्छर इक भाषा बिन किमि काम चलै तब॥
सो न सकति करि अँगरेजी बहु दिवस अनन्तर।
और कौन करि सकत नागरी तजि विधि सुन्दर?
आपुहि समय प्रवाह सहज या कहँ विस्तारत।
चारहुँ ओर चाह सोँ सब कोउ याहि निहारत॥
तासोँ जो या समय सहायक याके ह्वैहैं।
थोरेहू स्रम किये अधिक जस के फल पैहैं॥

हरिगीती


गुनि यह न विलम लगाय हिय हरखाय सब कोऊ अहो।
निज जननि भाषा जननि हित हित चेति चित साहस गहो॥
करि जथारथ उद्योग पूरन फल अमल जस जग लहो।
लहिकै कृपा जगदीस जय २ नागरी नागर कहो॥