पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३४७

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रहौ निरोग सदा सुख सोँ चिरजीवहु प्यारे!
निज भाषा हित साधन के हित नित प्रन धारे॥
लहौ नवल उत्साह औरहू अधिक आज सन।
पूरन कृतकारज ह्वै जाहु लवेगि जिहि कारन॥
अबहिँ कामना पूजी तुम सब की चौथाई।
सेस काज हित अधिक परिस्रम सेस लखाई॥
तासोँ बिलम न करहु उठहु कसिकै परिकर पुनि।
हिये सुमिर हरि, करि मेकडोलन की जय जय धुनि॥
उनके अरु अपने कीने की लाजहिँ राखहु।
करि प्रचार नागरी यथारथ श्रम फल चाखहु॥
जनि विराम छिन गहौ अलभ्य लाभ पायो गुनि।
न तौ धूरि मैं मिलिहै सब कर्तूति करी पुनि॥
अस न करहु असहाय जानि पुनि जाय निकारी।
बहु दिन पीछे बैठी हू नागरी बिचारी॥
रही निरासा जब तब स्रम करि तुम फल पायो।
अब तो आसा को बसन्त चहुँ ओर सुहायो॥
देसी राजा लोग सहायक बने तुमारे।
निज २ राज काज मैं निज अच्छरन सँचारे॥
निश्चय समुझहु अवसि एक दिन ऐसो ऐहै।
भारत देस अनेक बीच एक रहि जैहै॥
यहै देव नागरी अलौकिक बरन मालिका।
यह नागरी भाषा जो संस्कृत बालिका॥
को सुवरन कहँ छाड़ि और धातुहिँ अपनैहै?
क्रय करि है को काच रतन राजी जब पैहै?
सुनि कोकिल कलकूज कौन काकन की करकस—
काँव २ पै कान देइहै मूढ़ मनुज अस?
भानु उदय लखि दीप बारिकै कौन देखिहै?
कौन मन्दमति कन्द छाँड़ि गुर ओर लेखिहै?