पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३५

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वह मनुष्य कहिबे के योगन कबहुँ नीच नर।
जन्म-भूमि निज नेह नाहिं जाके उर अन्तर॥६३॥
जन्म-भूमि हित के हित चिन्ता जा हिय नाहीं।
तिहि जानौ जड़ जीव, प्रगट मानव, तन माहीं॥६४॥
जन्मभूमि दुर्दशा निरखि जाको हिय कातर।
होय न अरु दुख सोचन मैं ताके निसि बासर॥६५॥
रहत न तत्पर जो, ताको मुख देखेहुँ पातक।
नर पिशाच सों जननीजन्मभूमि को घातक॥६६॥
यदपि बस्यो संसार सुखद थल विविध लखाहीं।
जन्म-भूमि की पै छवि मन तें बिसरत नाहीं॥६७॥
पाय यदपि परिवर्तन बहु बनि गयो और अब।
तदपि अजब उभरत मन में सुधि वाकी जब जब॥६८॥

दर्शनाभिलाषा

यों रहि रहि मन माहिं यदपि सुधि वाकी आवै।
अरु तिहि निरखन हित चित चंचल है ललचावै॥६९॥
तऊ बहु दिवस लौं नहिं आयो ऐसो अवसर।
तिहि लखि भूले भायन पुनि करि सकिय नवल तर॥७०॥
प्रति वत्सर तिहिं लांघत आवत जात सदाहीं।
यदपि तऊ नहिं पहुँचत, पहुँचि निकट तिहि पाहीं॥७१॥
रेल राँड़ पर चढ़त होत सहजहिं परबस नर।
सौ सौ सांसत सहत तऊ नहिं सकत कछू कर॥७२॥
ठेल दियो इत रेल आय बेमेल बिधानन।
हरि प्राचीन प्रथान पथिक पथ के सामानन॥७३॥
कियो दूर थल निकट, निकट अति दूर बनायो।
आस पास को हेल मेल यह रेल नसायो॥७४॥
जो चाहत जित जान, उतै ही यह पहुँचावत।
बचे बीच के गाम ठाम को नाम भुलावत ॥७५॥