पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३६

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आलस और असुविधा की तो रेल पेल करि।
निज तजि गति नहिं रेल और राखी पौरुष हरि॥७६॥
तिहि तजि पाँचहु परग चलन लागत पहार सम।
नगरेतर थल गमन लगत अतिशय अब दुर्गम॥७७॥
इस्टेशन से केवल द्वै ही कोस दूर पर।
बसत ग्राम, पै या चढ़ि लागत अति दुस्तर॥७८॥
यों बहु दिन पर जन्म भूमि अवलोकन के हित।
कियो सकल अनुकूल सफ़र सामान सुसज्जित॥७९॥
पहुँचे तहँ जहँ प्रतिवत्सर बहु बार जात हैं।
रहन सहन छूटे हूँ जेहि लखि नहिं अघात हैं॥८॥
काम काज, गृह अवलोकन के स्वजन मिलन हित।
व्याह बरातन हूँ मैं जाय रहे बहु दिन जित॥८१॥
यदपि गए जै बार हीन छबि होत अधिकतर।
लखि ता कहँ अति होत सोच आवत हियरो भर॥८२॥
पै यहि बार निहार दशा उजड़ी सी वाकी।
कहि न जाय कछु बिकल होय ऐसी मति थाकी॥८३॥

वर्तमान दीन दृश्य

हा दत्तापुर रह्यो गांव जो देस उजागर।
गमनागमन मनुज समूह जित रहत निरन्तर॥८४॥
जिनके आवत जात परे पथं चारहुँ ओरन।
देत बताय पथिक अनजानेहुँ भूले भोरन॥८५॥
सो न जानि अब पर कहाँ किहि ओर अहै वह।
जानेहुँ चीन्हि परै न कैसहूँ अहै वहै यह॥८६॥

पूर्वदशा



कँटवासी बंसवारिन को रकबा जहँ मरकत।
बीच २ कंटकित वृक्ष जाके बढ़ि लरकत॥८७॥