पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३५४

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जय गणेश मंगल करन, हरन सकल दुख द्वन्द।
सिद्धि सलिल नित प्रेमघन, पर बरसहु सानन्द॥३८॥
मंगल मूरति गजानन्द, गौरी लीने गोद।
शंकर सँग राखैं सदा, सह बर बधू बिनोद॥३९॥
ब्रह्मचारी वनि कै लियो, सकल जगत जिन जीत।
सब विधि सों मंगल करै, श्री बावन उपनीत ॥४०॥

धर्म


सत्य जथारथ जाहि मन, कहै कीजिये ताहि।
बिनु विलम्ब के प्रेमघन प्रण पूरो निर्वाहि॥४१॥
जा कहँ अन्तर आत्मा मानत मिथ्या बैन।
भूलि न बोलौ प्रेमघन ताहि जो चाहो चैन॥४२॥
अन्तरात्मा प्रेमघन कहै जो तुहि निःशंक।
करु तिहि डरु जनि जगत के, लहि कै कोटि कलंक॥४३॥

नीति


साज बाज मुद्रा मनुज, निज गुन दोष तुरन्त।
बोलत प्रगटत प्रेमघन, समुझत सुन गुनवन्त॥४४॥
या असार संसार में, सज्जन संगति सार।
जासों सुधरत प्रेमघन, उभय लोक व्यवहार॥४५॥
सज्जन मन दरपन दोऊ, स्वच्छ रहे छवि पूर।
नेकहु चोट न सहि सकत, रंचक ही में चूर॥४६॥

ज्ञान


सरिता सागर मिलि गई, सागर भेद मिटाय।
तथा जीव यह ब्रह्म सों, मिलत ब्रह्म बनि जाय॥४७॥
घटाकास घट फूटतहिं, महाकास मिलि जात।
जीव ब्रह्ममय होत त्यों, माया सों बिलगात॥४८॥