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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३५५

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मन मंदिर में लखि अलख, सोई जीति जनाति।
जाकी आभा अंस लहि, यह सव सृष्टि विभाति॥४९॥
जो भीतर सोई प्रेमघन रहो दसो दिशि पूरि।
रम तासों मन आप मैं क्यों भरमत कढ़ि दूरि॥५०॥
उभय लोक संपति भरी मन मंदिर के माहिं।
तासों पंडित प्रेमघन, तिहि तजि अनत न जाहिं॥५१॥
निज सुन्दरता सार जौ, मन तू लेहि विचारि।
तौ भूलेहूँ प्रेमघन सकै न अनत निहारि॥५२॥
भलि न बाहर भरम त, ए मन मीत अयान।
लखि भीतर घुसि प्रेमघन, पैठ्यो प्रिय सुखदान॥५३॥
भरो अहै रस ईख मैं छीलि चूसि तौ चाखि।
त्यों भीतर है प्रेमघन ईस न तू मन मांखि॥५४॥
पय मैं घृत पाहन अनल, नभ मैं शब्द समान।
पूरि रह्यो जग प्रेमघन ब्रह्म परखि पहिचान॥५५॥
जहँ खोदे खोजे मिलत जगत रतन दै दाम।
सेतहिं चाहत प्रेमघन हरि हीरा अभिराम॥५६॥
बाहर तू ढूँढत मिले कहाँ यार दिलदार।
घुसि भीतर तो प्रेमघन लख उसका दीदार॥५७॥
या असार संसार मैं, सत्य धर्म इक सार।
लह्यो न ताहि जो जग जनमि भयो व्यर्थ भूभार॥५८॥
सौ खटपट संसार की, अटपट नेक लगैं न।
चौघट में रट राम की, लगी रहै दिन रैन॥५९॥
देत दया दृग दीठ जो, करत सकल दुख नास।
भूलि ताहि जनि प्रेमघन, करि औरन की आस॥६०॥
गाठ परत जाकी कृपा, जाँचत बिलखि सहाय।
पाय प्रेमघन सुख समय, मन सो तिहु न भुलाय॥६१॥
जाकी अंस विभूति लहि, राजत जगत अनन्त।
पूरन आसा प्रेमघन, अन्य कौन श्रीमन्त॥६२॥

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