सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—३३१—

लखि कुसंग कंटक हमैं सुन्दर मुख अरविन्द।
ललकि मिलत ए लालची लोचन युगल मलिन्द॥९७॥
वे का जानै प्रेम के, मरम मातमी लोग।
लहे न जे दुख विरह के, त्यों सुख सुमुखि संयोग॥९८॥
वृथा जिए जग ते न जे लखे सहित सतरानि।
बंक भौंह की मुरनि कै मधुर अधर मुसक्यानि॥९९॥
मीत काम ऋतु पति दियो चूत बाग बौराय।
बौराने नर ज्यों कहा अचरज फागुन पाय॥१००॥
बौराने बन आम लखि बौराने बस काम।
ही हारे नर हेर ते वाम लोचना बाम॥१०१॥
मौरे मंजु रसाल पै लखि मलिन्द गुँजार।
मनहुं कराहैं कोइलैं पंचम सुरहि सुधारि॥१०२॥
कुटिल भौंह निरखी न जिन लखी न मृदु मुसक्यानि।
सकहिं प्रेमघन प्रेम रस ते कैसे अनुमानि॥१०३॥
बिंध्यो न उर जिनके कभौं नैन सैन के तीर।
वे बपुरे कैसे सकैं जानि प्रेम की पीर॥१०४॥
श्री राधा राधा रमन, प्रकृति पुरुष परतच्छ।
ध्याय पाप जुग प्रेमघन, पाप सकल फल स्वच्छ।