पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३५८

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नाचत चन्द अमन्द मुख पैं दोऊ दृग खंज।
किधौं उभय अलि गुञ्जरत पाय प्रफुल्लित कुंज॥८७॥
घूँघट के पट ओट मैं, चलत चखन की चोट।
खेलत मार सिकार मन, मृग मारत बिन खोट॥८८॥

केश


बिथुरे बार सिवार सों उघरयो मुख अरबिन्दु।
राहु ग्रास तैं छूटि जनु सोहत सारद इन्दु॥८९॥

कुच


रति समुद्र मैं बूड़ि कहु को तिरती किहि साथ।
युगल कलश कुच तुव नहीं जु पै लागती हाथ॥९०॥
एक बार काहू जगुति, दिखरायो वह बाल।
मीठो अरु भर कठौती कैसे लहिए लाल॥९१॥
है बरसाइत की भली बरसाइत यह आज।
बरसाइत करि प्रेमघन मिली सजनी वृजराज॥९२॥

गति


गरे गरूर गयन्द तजि भाजे ताल मराल।
ललकि चले मन मनुज लखि तुव मतवाली चाल॥९३॥
कुच नितम्ब के भार सों लचत लंक लचकाय।
अठखेलिन की चाल सों चली जात चित हाय॥९४॥
तने भौंह तिरछी तकनि तनिक मन्द मुसकाय।
चली लंक लचकाय धंसि गई करेजे आय॥९५॥

प्रेम


इन्द्रासन चाहत न मैं नहि कुबेर को धाम।
सनमुख सुमुखि समूह के ठाढ होन की ठाम ॥९६॥